Friday, March 25, 2011

नक़ाब रुख़ से

नक़ाब रुख़ से हटाओ, तो बात बन जाये,
अगर नज़र से पिलाओ, तो बात बन जाये,

है लुत्फ़ पीने का अब्रा-ओ-सहाब में ऐ सनम,
ज़ुल्फ़ शानो पे गिराओ, तो बात बन जाये,

चांदनी रात है और मस्त हवा के झोके,
अगरचे पहलू में आओ, तो बात बन जाये,

तुम्हारी चेहरे से सरकी है ज़ुल्फ़ मुद्दत में,
तुम आज ईद मनाओ, तो बात बन जाये

हसीन रात है "बेबस" की अगर कोई  ग़ज़ल,
जो दिल के साज़ पे गाओ, तो बात बन जाये

रुख़ हवाओं का

पहले दुनिया को, समझ लीजिये, 
फिर कही जा के, सनम कीजिये,

हुस्न एक, बुलबुला है पानी का,
रुख़ हवाओं का, समझ लीजिये, 

खेल कहते नहीं, मुहब्बत को,
दिल है पारा सा, समझ लीजिये, 

उनकी बातों पे यकीं, उफ़ ! तौबा,
रेत का घर है समझ लीजिये,

मैं कोई "मीर", नहीं हूँ "बेबस",
एक अदना सा, समझ लीजिये